विपस्सना की पहली अनुभूति

सन २०१० के जुलाई महीने में मैं सम्मर वेकेशन मनाने काठमांडू गया। वर्ल्ड कप का नशा हर व्यक्ति में छाया हुआ था। फाइनल देखने के लिए दोस्त के रूम पर बियर के बोतल खुली और वर्ल्ड कप ख़तम होने के बाद घर लौटने की तैयारी करी|

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1 महीने की छुट्टी अभी शेष थी, दिन कैसे बिताउ समझ में नहीं आ रहा था। अचानक दिमाग में कुछ आया, मार्टिन को कॉल करके आईडिया लिया. तुरंत सम्बंधित निकाय को कॉल करके डेट्स फाइनल किया। रिसीवर से आवाज आई आपको आज ही पंजीकरण करवाना होगा और कल से ही आपके कोर्स की शुरूवात होगी, जल्दी करियेगा सीट बहुत कम रह गयी है।  हमने जल्दी से अनु को बाइक लेके आने को बोला।  हम दोनों होंडा शो रूम पहुंचे और मेरी आईडिया अनु को बताया और वो भी शामिल हो गया।  आधे घंटे के अंदर हमारा पंजीकरण होगया और हमें एक बुकलेट दी गई रटने के लिए।  

अति उत्सुक था और मन में थोड़ा भय भी, क्यों की अगले १२  दिन मेरे जिंदगी के ऐसे छण बिताने जा रहे थे जो पहले कभी एक्सपीरियंस नहीं किया था ।  

अगले दिन सुबह ७ बजे अनु और मैं ऑफिस पहुंचे, शायद थोड़ी जल्दी पहुंच गए, ४ लोग पहले से बैठे हुए थे। आधे घंटे में ऑफिस का वेटिंग रूम भर चूका था, सीट के एब्सेंस में कई लोग खड़े थे, करीबन २०० लोग होंगे मेल, फीमेल और बुजुर्ग मिलाके। सब के हाथ में कम से कम एक बैग या एक सूटकेस था और आपस में खुसूरफुसुर कर रहे थे। समय होचुका था, ऑफिसर ने आके अनाउंसमेंट किया : सबको हॉल की तरफ जाना है, शांत रह कर आचार्य (गुरु) जी से १ घंटे का प्रवचन ग्रहण करना है।  प्रवचन के बाद सबको बैच में बांटा गया, हर बैच को विंगर में बैठने की सलाह दी गयी। विंगर एक एक करके रवाना हो रहे थे। वैसे ही हम भी एक विंगर में बैठके रवाना हो गए।  

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अभी तक हमें बताया गया था की हमें १० दिन कंटिन्यू बगैर बोले ध्यान करना है, हम धर्मश्रृंगा के ओर प्रस्थान कर रहे थे।  काले बादल छाए हुए थे और जैसे ही शिवपुरी पहाड़ों पे चढ़ना शुरू किया वैसे ही बारिश होने लगी, यह शुभ घडी का संकेत था हमारे लिए।  

गंतव्य पे पहुंचते ही हमने चेक इन किया, मोबाइल फ़ोन जमा करना पड़ा और हमें अकोमोडेशन के रेगुलेशंस बताया गया।  अनु का रूम मेरे रुम से काफी दूर आलोट किया गया था।  घने जंगल के बिच में, मध्य पहाड़ी से सारा काठमांडू का नजारा दिखता था, हल्की बारिश और ऐसे मौसम में किसका मन शांत न हो। ऐसा लग रहा था की आधी मोक्ष की प्राप्ति कोर्स सुरु होने से पहले ही मिल गई।  शाम के डिस्कोर्स में १० दिन की रूटीन बताया गया और कंसल्ट करने के लिए एक आचार्य आल्लोट किये गए।  अगले १० दिनों तक किसी को कुछ बोलने की इजाजत नहीं थी, ना ही कोई इशारा करने की।  किसी को कुछ दिक्कत हो तो वालंटियर्स को इन्फॉर्म करने को बताया गया।  रात को ९ बजे विश्राम करने को अनुमति दी गई| 

सुबह ४ बजे मॉर्निंग बेल बजा, आधे घंटे में रेडी हो कर मैडिटेशन हॉल जाना था।  सबको बैठने के लिए सीट मिली हुई थी।  कोर्स का पहला दिन था, सारे शांत थे, बोलता था तो सिर्फ ऑटोमेटेड स्पीकर्स।  वो कुछ समय इंस्ट्रक्शंस देता और हम उसके बताए हुए कमांड्स को प्रैक्टिस करने को ट्राई करते| यह प्रक्रिया दिन भर कंटिन्यू रहता था।  करीब ११ बजे अपने आचार्य के साथ कंसल्ट करने की परमिशन थी जिसमे हम अपना एक्नॉलेजमेंट देते थे और डाउट्स क्लियर करते थे। सुबह आधे घंटे का ब्रेकफास्ट, दोपहर को डेढ़ घंटे का लंच और शाम को आधे घंटे का डिनर छोड़ कर हर एक डेढ़ घंटे में ५ मिनट की ब्रेक मिलता था।  शाम को साढ़े ८ बजे गुरु जी का डिस्कोर्स अटेंड करते थे।  बाकि सारा समय सुबह ४ से लेकर रात को ९ बजे तक सब्जेक्ट की प्रैक्टिस करते रहते थे।  पुरे कोर्स को २ सब्जेक्ट में डिवाइड किया गया था : पहला ३ दिन १ सब्जेक्ट पे प्रैक्टिस किया और दूसरा बाकी के ७ दिन।

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धीरे धीरे दिन बीत रहा था, रोज कुछ ना कुछ सीखने को मिल रहा था, ऐसा लग रहा था ज्ञान के सागर मे तैर रहा हूँ| बहोट आनंद आ रहा था| परंतु कुछ लोग परेशान होने लगे थे, मेरे रूममेट्स रात होते ही बाते करने लगते थे और अब वो शैयाँ कुछ हद तक टूट चुका था. हमने भी एक बार प्रयास किया अनु से बात करने का लेकिन वॉलंटियर्स ने माना कर दिया| बहुत को वॉर्निंग मिलने लगी थी, इससे पता चल रहा था की इंसान की बोलने की आदत बहुत बुरी तरह से लगी है और यह आसानी से नही छूट सकती|

पाँचवा दिन था, सुबह सुबह 5-7 लोग गुरु जी के साथ परामर्श कर रहे थे| हमारे बाद गुरु जी ने एक दोस्त से पूछा: शरीर मे कुछ फील हो रहा है या नही? जवाब था: मैइ मेरे शरीर के इक्कीससो अंगो को फील कर रहा हूँ| यह सुन के दूसरा दोस्त हसने लगा और उसकी हसी देख कर हम सब भी हसने लगे और गुरु जी भी| गुरु जी ने हसी रोकने को कहा, और हसने का बेफायदा भी बताया, सब लोग शांत हो गये सिवाए मेरे और वो जिसने शुरूवात की थी| गुरु जी ने बाहर जाने की सलाह दी , हम बाहर जा कर खूब हसे, हसी रुकने के बाद वापस अपनी सीट पर जा कर बैठ गये| उस रात मैने बहुत सोचा , सोचते सोचते अचानक से आँखो से आँसू टपकने लगे| अजीब सी अनुभूति होने लगी और एहसास हुआ की मुझे इस तरह नही हसना चाहिए था, बहुत बुरा फील हो रहा था| साथ ही साथ ऐसा भी लग रहा था जैसे मुझे आज कुछ कीमती चीज़ मिली हो जो बहुत कम लोगो को मिलती है|

वो चीज़ जिसे मैने बरसो पहले खो दिया था. लग रहा था अंधेरे जीवन मे सूरज की पहली किरण पड़ी हो| ज्ञान के सागर मे रो रहा था लेकिन खुशी के आँसू टपक रहे थे, अपने आप को कोसने लगा, ये ज्ञान मुझे पहले क्यूँ नही मिला, पहले क्यूँ नही मिला|

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दशवा दिन मेलमिलाप वाला दिन था, सब लोग आपस मे बाते कर सकते थे, सुख दुख की बाते बता सकते थे| सबके चेहरे पे खुशी की रौनक थी, 9 दिन बाद जो खुलके बात करने को मिला था| आपस मे सारे पहचान कर रहे थे और अपने एक्सपीरियेन्स बाँटने मे लगे हुए थे, कोई बुक्स खरीदने मे व्यस्त था तो कोई फोटो खिचने मे| कोई खुश था वंडरफुल एक्सपीरियेन्स को पाकर तो कोई बस यूँ ही|

अगले दिन सुबह वीपास्साना कोर्स का अंतिम अनुभूति करा और 9 बजे चेक आउट करके अनु और मै घर लौट आए|

कहते है हिंदू कोई धर्म नही, यह जीने की एक सैली है वैसे ही वीपास्साना भी जीने का तरीका सिखाती है, खुश रहना सिखाती है, जी हाँ खुश रहना सिखाती है| यह कोर्स में 95% प्रॅक्टिकल करवाया जाता है| इसके रोज अभ्यास करने से नैतिक ज्ञान की प्राप्ति होती है, समाज, देश और संसार को सही राह पे चलना सिखाती है. यह आज मे जीना सिखाती है|

A Thought into an Action

It started when a car was pooled and the front seat was chosen. A continuous horn was blown by the driver on the busy street. He was suggested not to make noise and was asked to drive peacefully. The fatal consequences of blowing horn in a busy street, residential areas,
school premises & hospital areas were elaborated. The horn was pulled off immediately and the subject was modified. A complete serene environment was created throughout the way until the destination was reached.

This happened to me when I caught a car in the morning for my office. When I reached the destination, I offered him 10 rupee tips along with the rent but he instantly denied the earlier, accepting the later and he gave a huge smile at his face. He said, “Bhai (Brother), you already have offered me tips before but I denied then too”. It is very generous & fortunate for such kind of people around us who understand and care for the environment.

Well, there isn’t any connection between the tips and the environment. However, I am writing this because it is we people who can make a relation between them. We lend tips to waiters at restaurants but we forget what we are offering them for. Why can’t we think for all services which are provided generously and are one or other way related directly or indirectly with the betterment of our environment must be applauded & awarded? For e.g. scavengers who collect the waste from your home, workers who clean the streets, shopkeepers who offer paper bags while you purchase goods, drivers who are calm and drive safely following each and every traffic rules, etc. These services are anyhow related with our environment and we are very few of us who appreciate their work and
award them for their better services.

In my opinion, tips are offered for the best services that are provided and to motivate the servicemen to work more sincerely and not because these are fashion or trend that we have to make. We can make difference by bringing fractional changes in ourselves and hence this may lead to
the construction of a sincere & serene world.

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I cannot help myself, I am a Farmer

I went on helplessly watching his tears, continuously rolling down his innocent eyes, physically weaving the fish net but mentally somewhere in a deep thought or pain. He gradually went on sighing without feeling any disturbance made by the children play aside and fighting to concentrate on his job.

This is one of the unforgettable moment of my life. I always asked my self, the reason behind his tears.

It took me more than a decade to understand the incident, the incident of that old man who was sitting at the corner and trying to weave the fish net.

Today, I can feel the same pain that the old man felt years ago when I found my two buffaloes dead which I bought a month ago in 70K*2 = 1.4lacs rupees and someone poisoned my fish pond which had more than 1K small fishes which I bought last week in 1K*10 = 10K rupees. Then my wife shouts at me “Bastard, why don’t you go and die with those fishes in the pond?”

I don’t have a clue, what to do now except weaving my fish net and gradually cry from the within. I don’t blame you god, this is my fortune I am born with. I don’t blame you god, I am a helpless farmer.

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